चिन्मय सायर : दर्शन और कोमलता के कवि By: Bhishma Kukreti

चिन्मय सायर : दर्शन और कोमलता के कवि
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सुरेन्द्र सिंह चौहान उर्फ 'चिन्मय सायर' का जन्म दूर-दराज के गांव अंदरसूं, डाबारी, बिछला बादलपुर, पौड़ी गढ़वाल में 17 जनवरी 1948 को हुआ था।
उनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री खुशाल सिंह था। चौहान। सायर का निधन 10 मार्च 2016 को हुआ
उनके पास इतिहास में एम.ए. की डिग्री है और शिक्षा में डिप्लोमा है।
अस्सी के दशक की गढ़वाली कविता में आज तक उनका महत्वपूर्ण स्थान है। सायर ने शायद गढ़वाली भाषा में हजार से ज्यादा कविताएं लिखी होंगी, लेकिन गढ़वाली क्रिएटिव की आर्थिक स्थिति साहित्य को पुस्तक रूप में प्रकाशित नहीं होने देती।
चिन्मय सायर के दो गढ़वाली भाषा के काव्य संग्रह मिलते हैं। पसीन की खुस्बू और 'टीमाला फूल'. उनकी अधिकांश कविताओं में पूरी तरह से दार्शनिक स्पर्श है। उनकी कविताएं 'उदासीनाता' मोक्ष, निर्वाण और आंतरिक ऊर्जा का संयोजन हैं। उदासीनता, तटस्थता, और उदासी के साथ यह आंतरिक ऊर्जा सायर की कविता की विशेषता है। चिन्मय ही गढ़वाली भाषा के कवि हैं जो इस तरह की कविता बना सकते हैं और भगवती प्रसाद नौटियाल जी सही ही कहते हैं कि चिन्मय ही ऐसी कविताएं बनाने वाली हैं और उन्हें पूर्व और वर्तमान के
सभी गढ़वाली भाषा के कवियों में विशिष्ट पहचान मिली है।
टीमाला फूल में 62 कविताएं हैं और सभी चिन्मय सायर की प्रतिनिधि हैं
गढवाल के प्रतीकों और छवि का प्रयोग अपने पंख फैलाते हैं और अपनी कविताओं में भी कई कहावतें इस्तेमाल करते हैं। सायर ने भी अपने बहुत सारे शब्द बनाए "दरुद्य, अजक्यूं, सोनाली, हलाद्यं, निदलीन, रास्तागीर ( भगवती प्रसाद नौटियाल, चिट्ठी पत्री, जुलाई, 1999) के रूप में श्लोक को पूरा करने के लिए
कुल मिलाकर चिन्मय सायर की कविताएं दर्शन, आंतरिक ऊर्जा और प्रेरणा से भरी हैं, कई कविताएं निराशा भी पैदा करती हैं, और समाज और व्यक्तियों को प्रकाश दिखाती हैं।
चिन्मय सायर ने गढ़वाली लघुकथाएं लिख शैलवानी साप्ताहिक कोटद्वारा में प्रकाशित की।

मन अघोरी (दार्शनिक गढ़वाली कविता )
रचना -- चिनमय सायर ( जन्म - 1948 -2016 , आंदर्सों , रिखणीखाल , पौड़ी गढ़वाल )
Poetry by - Chinmay Sayar ( Surendra Singh Chauhan )
( विभिन्न युग की गढ़वाली कविताएँ श्रृंखला )
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इंटरनेट प्रस्तुति और व्याख्या : भीष्म कुकरेती
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मन अघोरी /घोर ध्यानम
ध्यानम बैठ्युं ब्रम्ह।
ईं कूड़ी की /द्वर ढकि लगीं जै
प्यटि प्याट यन स्वचणू भै
यखी म्यारु भि /मरघट ह्वे जा
मोरी जा म्यारु अहम्।
अहा !
नाम धाम की बिज्वाड़ औंगिरगे
अर तृष्णा -हिरुलि /तेरी जलुडी घाम लगिंगे
य दुनिया ह्वेगे ऐसी तैसी
वेकु , वासुदेवः सर्वम्।
( साभार --शैलवाणी , अंग्वाळ )
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